भारतीय स्त्रियों की पारम्परिक परिधान साड़ी है
यह परिधान हमारे देश में राष्ट्रीय पोशाक से कुछ कम नही माना जाता है। साड़ी भारतीय स्त्रियों का मुख्य परिधान है। चाहे करवा चौथ, चाहे तीज या फिर अन्य किसी सांस्कृतिक उत्सवों पर सजना संवरना हो तो बिना साड़ी के मानो महिलाओं का श्रृंगार ही पूरा नही होता।
साहित्यिक साक्ष्य
संस्कृत के अनुसार साड़ी का शाब्दिक अर्थ होता है ‘कपड़े की पट्टी’। जातक नामक बौद्ध साहित्य में प्राचीन भारत के महिलाओं के वस्त्र को ‘सत्तिका’ शब्द से वर्णित किया गया है। चोली का विकास प्राचीन शब्द ‘स्तानापत्ता’ से हुआ है | जिसको मादा शरीर से संदर्भित किया जाता था। कल्हण द्वारा रचित राजतरंगिनी के अनुसार कश्मीर के शाही आदेश के तहत दक्कन में चोली प्रचलित हुआ था। बाणभट्ट द्वारा रचित कादंबरी और प्राचीन तमिल कविता सिलप्पाधिकरम में भी साड़ी पहने महिलाओं का वर्णन किया गया है।

साड़ी का नाम आते ही भारतीय नारी का पूरा व्यक्तित्व नजरों के सामने उभर आता है। साड़ी भारतीय स्त्री का मुख्य परिधान है। साड़ी जो आज विदेशों में भी खूब पसंद की जा रही है। भारत आईं विदेशी मेहमान भी साड़ी पहनकर भारतीयता का एहसास करती हैं।
साड़ी शायद विश्व की सबसे लंबी और पुराने परिधानों में से एक है। इसकी लंबाई सभी परिधानों से ज्यादा है और यह एक तरह से कहें तो आदिकाल से भारतीयता की पहचान भी है। यह लगभग 5 से 6 गज लम्बी होती है और यह ब्लाउज या चोली और पेटीकोट के साथ पहनी जाती है। वहीं महाराष्ट्र में नौ गज की साड़ी पहनने का रिवाज है।
साड़ी के इतिहास पर नजर डालें तो इसका उल्लेख वेदों में मिलता है। यजुर्वेद में सबसे पहले साड़ी शब्द का उल्लेख मिलता है। वहीं ऋग्वेद की संहिता के अनुसार यज्ञ या हवन के समय पत्नी को साड़ी पहनने का विधान है एेसा कहा गया है। धीरे-धीरे यह भारतीय परंपरा का हिस्सा बनती गई और आज भी साड़ी भारत की अपनी पहचान है।
पौराणिक ग्रंथ महाभारत में द्रौपदी के चीर हरण का प्रसंग है। जब क्रोध में आकर दुर्योधन ने द्यूत क्रीड़ा में द्रौपदी को जीतकर उसकी अस्मिता को सार्वजनिक चुनौती दी थी तब भगवान श्रीकृष्ण ने साड़ी की लंबाई बढ़ाकर उसकी रक्षा की थी। इससे यह पता चलता है कि साड़ी केवल पहनावा ही नहीं स्त्री के लिए आत्म कवच भी है।
पुरातन काल से चली आ रही पारंपरिक परिधान साड़ी आज तरह-तरह के रंगों डिजायनों में उपलब्ध है। वक्त के साथ इसमें बदलाव होते गए। दूसरी शताब्दी में पुरुषों और स्त्रियों के ऊपरी भाग को अनावृत दर्शाया गया है। इसमें बारहवीं शताब्दी तक कोई खास परिवर्तन नहीं हुआ। चूंकि साड़ी का धर्म के साथ विशेष जुड़ाव रहा है, इसीलिए बहुत सारे धार्मिक परंपरागत कला का इसमें समावेश होता गया और रंग डिजाइन बदलते गए।
धर्म और रंग का सामाजिक प्रभाव भी साड़ी पर साफ देखा जा सकता है। जहां पहले सामाजिक रीति-रिवाज के अनुसार विवाहित महिलाएं रंगीन और डिजायनदार साड़ी पहनती थीं और विधवाओं को पहनने के लिए सफेद रंग की साड़ी दी जाती थी। उन्हें रंगहीन समझा जाता था। समय के साथ परंपराएं भी बदलीं हैं।

तरह–तरह की साड़ियाँ और पहनने के तरीके
साड़ी पहनने के कई तरीके हैं जो भौगोलिक स्थिति और पारंपरिक मूल्यों और रुचियों पर निर्भर करता है। अलग-अलग शैली की साड़ियों में कांजीवरम साड़ी, बनारसी साड़ी, पटोला साड़ी और हकोबा मुख्य हैं।
मध्य प्रदेश की चंदेरी, महेश्वरी, मधुबनी छपाई, असम की मूंगा रेशम, उड़ीसा की बोमकई, राजस्थान की बंधेज, गुजरात की गठोडा, पटौला, बिहार की टस्सर, काथा, छत्तीसगढ़ी कोसा रेशम, दिल्ली की रेशमी साड़ियां, झारखंडी कोसा रेशम, महाराष्ट्र की पैथानी, तमिलनाडु की कांजीवरम, बनारसी साड़ियां, उत्तर प्रदेश की तांची, जामदानी, जामवर एवं पश्चिम बंगाल की बालूछरी एवं कांथा टंगैल आदि प्रसिद्ध साड़ियाँ हैं। साड़ी अब अल्ट्रा-मॉडर्न हो गई |
पारंपरिक चीजें धीरे-धीरे हमारी जिंदगी से गायब होती जा रही हैं। साड़ी भी उनमें से एक है। समय की कमी, सहूलियत की कमी और न जाने कितने ऐसे ही बहानों की वजह से साड़ियां धीरे-धीरे युवा भारतीय महिलाओं के लिए भी किसी खास मौके पर पहना जाने वाला परिधान मात्र बनकर रह गयी हैं। शायद यही वजह है कि साड़ी को फिर लोकप्रिय बनाने और इस खूबसूरत परिधान में जान डालने के लिए तरह-तरह की मुहिम शुरू हो चुकी है |
साड़ी को लोकप्रिय बनाने के लिए उसे पहनने के तरीके से लेकर फैब्रिक के मामले में भी कई प्रयोग हो रहे हैं। दुनियाभर में साड़ी पहनने के 80 से भी ज्यादा तरीके हैं। जानी-मानी फैशन डिजाइनर शायना एनसी मानती हैं कि वो खुद 54 तरीकों से साड़ी बांध सकती हैं। फैशन की दुनिया में तकरीबन रोज ही साड़ी को लेकर नए प्रयोग हो रहे हैं। ये प्रयोग पारंपरिक लुक के साथ साड़ी पहननेवाले को मॉडर्न टच देते हैं।
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