
पात्र चित्रण
प्रचीन यूनानी कला के अंतिम चरण का विचार एथेंस के पत्रों पर हुयी चित्रकारी से आरम्भ किया जा सकता है | इस समय काले रंग की आकृतियों वाली तकनीक का प्रयोग हुआ है | जिन्हें पकाई हुयी मिटटी के के लाल धरातल पर चित्रित किया गया है | आकृतियों की आतंरिक रेखाएं काले रंग को खुरच कर बनायी गयी हैं |कहीं कहीं सफ़ेद एवं बैंगनी रंग का पुट दिया गया है | कब्रों में काम आने वाले पात्रों पर प्राय: ‘नेसास’ नामक अर्ध मानव – अर्ध अश्वदैत्य को मारते हए ‘हेराक्लीस’की पौराणिक कथा का अंकन अत्यंत लोकप्रिय था |
एथेंस की काली आकृति चित्रण शैली 560ई. पूर्व के लगभग अपने चरमोत्कर्ष पर थी | इस समय यहाँ के शासक ‘पिसिस्त्रातुस’था | लाल धरातल पर काली आकृतियाँ बनती थी | किन्तु छठी शताब्दी ई. पूर्व के अंतिम चरण में पत्रों के धरातल को काला रंगा जाने लगा था तथा के समय ही आकृतियों वाले भाग रिक्त छोड़े जाने लगे थे | इस टेक्नीक को काले धरातल पर लाल आकृति चित्रण कहा गया |
काली पृष्ठभूमि पर लाल आकृति के आरम्भिक चित्रकार ( एन्दोकिदीस, सियाक्स )इनकी शैली में नाज़ुकपन है | अन्य चित्रकारों में (एपिक्तोतेस , युफ़्रोनिओस ,मेकरन ,हीरोन ,युथिमिडीस,पेनेतिअस ,एक्सिकियास ,दुओरिस ,आदि इन उपरोक्त ने पात्र कला में अनेक तकनीकी प्रयोग किये | मीडियास के नाम सेएक अन्य पात्र निर्माता एवं चित्रकार भी बहुत विख्यात हो गया था |
मूर्तिकला
480 ई. पूर्व में यूनान में गज्रेक्स (Xeroxes)का आक्रमण हुआ | पारसी आक्रान्ताओं ने समस्त कला कृतियों को नष्ट कर डाला |जब एथेंस उनके चंगुल से मुक्त हुआ तब नवीन भवनों का निर्माण किया गया किन्तु प्राचीन कला कृतियों के पुनरुद्धार का कोई प्रत्न नही किया गया |उत्खनन में ये सभी अवशेष उसी अवस्था में प्राप्त हुए हैं | अतः तत्कालीन मूर्तिकला के परिचय के लिए हम इन्ही अवशेषों पर निर्भर रहते हैं | पांचवीं सदी के अंत में कलाकार बड़ी ही सजीव ,उन्मुक्त और परंपरा से पूर्णत: भिन्न नवीन आकृतियों की रचना करने लगे थे |
इस समय तक कांसे की पोलदार प्रतिमाएं ढालने की तकनीक ज्ञात हो चुकी थी | हलके तथा भरी कपडे की सिकुड़नों के विभिन्न प्रभाव दिखाने में इस समय के मूर्तीकारों ने कुशलता प्राप्त करना प्रारंभ कर दिया था |अश्वारोहियों आदि की प्रतिमाएं भी बनने लगीं थी |लेटी तथा बैठी हुई स्थिति में भी छोटी एवं बड़ी कांस्य की मूर्तियाँ भी बनाई जाने लगी थी |
एटिका में जहाँ नग्न आकृतियाँ बनती थी वहीँ आयोनियां से वस्त्राच्छादित प्रतिमाओं की परंपरा थी संभवतः यहाँ अधिक मांसल आकृति अच्छी समझी जाती होगी | भवनों को अलंकृत करने हेतु विषम प्रकार की प्रतिमाएं निर्मित की गयी |त्रिभुजाकार सरदल तीन मानव मुख वाले जीव की कल्पना की गयी | जिसकी पूँछ सर्पाकृति की बनायीं गयी त्रिभुज के कोणीय क्षेत्र को भरके की गयी इस समय की बड़ी उपयुक्त आकृति है | इस प्रकार बनी प्रतिमाओं को तथा उनकी प्रष्ठभूमि को विभिन्न प्रकार से रंगा भी जाता था मुर्ति का धरातलों तथा आकृतियों की सूक्ष्मताओं का भी बहुत सावधानी से अंकन करने लगें थे किन्तु फिर भी इस समय तक छाया प्रकाश का विवरण देखने को नहीं मिलता | दृष्टिबिन्दु एवं परिप्रेक्ष्य के विचारों का अभाव है | अतः कहा जा सकता है कि कलाकार अभी तक पूर्णतः परंपरा मुक्त नहीं हो पाएं थे |
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